100+ Mirza Galib Shayari | मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी


Mirza Galib Shayari: आज के इस लेख में आपके लिए मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी लेके आए है। इस तरह की मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी आपको मिलना मुश्किल है। आप यह लेख अपने मित्रो के साथ साझा कर सकते हैं।

Mirza Galib Shayari

उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’,
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे।

कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता,
तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता।

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं,
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं।

अक्सर बेहतरीन की खोज में हम,
बेहतर को भी खो देते हैं।

मेरी ज़िन्दगी है अज़ीज़ तर इसी वस्ती मेरे,
हम सफर मुझे क़तरा क़तरा पीला ज़हर,
जो करे असर बरी देर तक।

मोहब्बत में नही फर्क जीने और मरने का,
उसी को देखकर जीते है जिस ‘काफ़िर’ पे दम निकले।

शक करने वालों को हक नहीं दिया करते,
और हक देने वालों पे शक नहीं किया करते।

ये संगदिलो की दुनिया है,
संभालकर चलना ‘ग़ालिब,
यहां पलकों पर बिठाते है,
नजरो से गिराने के लिए।

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा,
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।

हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था,
आप आते थे मगर कोई अनागीर भी था।

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल,
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।

कोई उम्मीद बर नहीं आती,
कोई सूरत नजर नहीं आती,
मौत का एक दिन मु’अइयन है,
नींद क्यों रात भर नहीं आती,
आगे आती थी हाल-ए-दिल प हँसी,
अब किसी बात पर नहीं आती।

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।

चाँदनी रात के खामोश सितारों की कसम,
दिल में अब तेरे सिवा कोई भी आबाद नहीं।

उनके देखे से, जो आ जाती है मुँह पर रौनक,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा हैं।

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।

हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन हमको मालूम है,
जन्नत की हकीकत लेकिन दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है।

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता।

भीगी हुई सी रात में जब याद जल उठी,
बादल सा इक निचोड़ के सिरहाने रख लिया।

कोई दिन गैर ज़िंदगानी और है,
अपने जी में हमने ठानी और है।

हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझसे,
मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबाँ मुझसे।

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई,
दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई।

बारह देखीं हैं उन की रंजिशें,
पर कुछ अब के सरगिरानी और है,
देके खत मुँह देखता है नामाबर,
कुछ तो पैगाम -ऐ -ज़बानी और है।

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक,
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक,
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन,
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक।

तोड़ा कुछ इस अदा से “ताल्लुक” उसने ग़ालिब,
कि हम सारी “उम्र” अपना क़ुसूर ढूँढ़ते रहे।

हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया,
पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना,
कि यूँ होता तो क्या होता।

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले हजारों,
ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले,
मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले।

उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक उनके देखे से जो आ जाती है,
मुंह पर रौनक वह समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।

कोई उम्मीद बर नहीं आती,
कोई सूरत नज़र नहीं आती,
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी,
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती।

ज़िन्दगी से हम अपनी कुछ उधार नही लेते,
कफ़न भी लेते है तो अपनी ज़िन्दगी देकर।

है एक तीर जिस में दोनों छिदे पड़े हैं,
वो दिन गए कि अपना दिल से जिगर जुदा था।

ऐ बुरे वक़्त ज़रा अदब से पेश आ,
क्यूंकि वक़्त नहीं लगता वक़्त बदलने में।

उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।

हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था,
आप आते थे मगर कोई अनागीर भी था।

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते है,
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते है।

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे,
वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है।

फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ,
मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ।

चाहें ख़ाक में मिला भी दे किसी याद सा भुला भी दे,
महकेंगे हसरतों के नक़्श हो हो कर पाएमाल भी।

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है,
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है,
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है।

ज़िन्दगी से हम अपनी कुछ उधार नही लेते,
कफ़न भी लेते है तो अपनी ज़िन्दगी देकर।

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई,
दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई।

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले।

हाथों की लकीरों पे मत जा ऐ गालिब,
नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते।

तेरे वादे पर जिये हम तो यह जान,झूठ जाना,
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता।

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले,
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल के खुश रखने को ग़ालिब यह ख्याल अच्छा है।

गुनाह करके कहां जाओगे ग़ालिब,
ये जमीं ये आसमा सब उसी का है।

हजारों “ख्वाहिशें” ऐसी कि हर ‘ख़्वाहिश’ पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान_लेकिन फिर भी कम निकले,
निकलना #ख़ुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन,
बहुत निकले मेरे ‘अरमान’ लेकिन फिर भी कम निकले।

क़र्ज की पीते थे मै, लेकिन समझते थे, कि हाँ,
रंग लायेगी हमारी फ़ाका मस्ती, एक दिन।

जब लगा था तीर तब इतना दर्द न हुआ ग़ालिब,
ज़ख्म का एहसास तब हुआ,
जब कमान देखी अपनों के हाथ में।

हैरान हूं तुझे मस्जिद में देखकर ग़ालिब ऐसा भी क्या होगा,
जो खुदा याद आ गया मुस्कान बनाए रखो तो सब साथ है,
ग़ालिब वरना आंसुओं को तो आंखों में भी मना नहीं मिलती।

दर्द हो दिल में तो दबा कीजिये,
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिये।

रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो,
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो,
बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए,
कोई हम-साया न हो और पासबाँ कोई न हो।

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है,
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है।

हम न बदलेंगे वक़्त की रफ़्तार के साथ,
जब भी मिलेंगे अंदाज पुराना होगा।

तेरे वादे पर जिये हम तो यह जान झूठ जाना,
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता।

ज़िन्दगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री,
हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे।

तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूं,
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़्चीर भी था।

ज़रा कर जोर_सीने पर की तीर -ऐ-पुरसितम् निकले जो,
वो निकले तो ‘दिल’ निकले , जो #दिल निकले तो दम निकले।

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना,
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना,
ले गए ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-नशात,
तू हो और आप ब-सद-रंग-ए-गुलिस्ताँ होना।

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता।

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।

पूछते हैं वह, कि ग़ालिब कौन है,
कोई बतलाओम कि हम बतलाएँ क्या।

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे,
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे,
हसरत ने ला रखा तिरी बज़्म-ए-ख़याल में,
गुल-दस्ता-ए-निगाह सुवैदा कहें जिसे।

बिजली इक कौंध गयी आँखों के आगे तो क्या,
बात करते कि मैं लब तश्न-ए-तक़रीर भी था।

यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं,
अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो।

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।

आईना देख अपना सा मुंह लेकर रह गए,
आईना देख अपना सा मुंह लेकर रह गए,
साहब को दिल न देने पर कितना गुरूर था।

इश्क पर जोर नहीं ए वो आतिश ग़ालिब इश्क पर जोर नहीं है,
यह वो आतिश ग़ालिब की लगाए न लगे और बुझाए।

जो दर्द दिखते नहीं वह दुखती बहुत ही,
बहुत नजदीक आती जा रही चढ़ने का इरादा कर लिया क्या।

क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं,
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ।

बना कर फकीरों का हम भेस ग़ालिब,
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते है।

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना,
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना।

यूसुफ़ उसको कहूं और कुछ न कहे ख़ैर हुई,
गर बिगड़ बैठे तो मैं लाइक़-ए-ताज़ीर भी था।

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यों,
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों।

आज फिर इस दिल में बेक़रारी है,
सीना रोए ज़ख्म-ऐ-कारी है।

बहुत मुस्कुरा रहे हो जनाब लगता है तुम्हारा इश्क नया-नया है,
नजरअंदाज जी का शौक था,
उनको हमने भी तोहफे में उन्हीं का शोक दे दिया।

बिजली इक कूंद गई आंखों के आगे तो क्या,
बात करते के मैं लब तिश्ना-ए-तक़रीर भी था।

आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ,
सोज़-ए-ग़म-हा-ए-निहानी और है।

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।

अपने किरदार पर डाल कर पर्दा,
हर कोई कह रहा है, ज़माना खराब है।

आता है दाग-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद,
मुझसे मेरे गुनाह का हिसाब ऐ खुदा न माँग।

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले,
मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले मेहरबा होके बुला लो मुझको,
चाहो जिस वक़्त मैं गुजरा वक्त नहीं कि फिर आना सकूं।

उम्मीद करते है की, आपको यह हमारा मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी आपको जरूर पसंद आया होगा। आप हमारा यह लेख अपने मित्रो के साथ साझा कर सकते है, और हमें कमेंट में बता सकते है आपको हमारा यह लेख कैसा लगा।

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